News : बॉम्बे हाईकोर्ट में चलेगी योगी आदित्यनाथ पर बनी फ़िल्म, अदालत ने लिया बड़ा फ़ैसला!

News : उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के जीवन पर आधारित फिल्म “अजय: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ ए योगी” को लेकर बॉम्बे हाईकोर्ट में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम सामने आया है। अदालत ने इस मामले में एक अनूठा कदम उठाते हुए फिल्म के निर्माताओं की याचिका पर आदेश देने से पहले खुद फिल्म देखने का फैसला किया है।

यह निर्णय केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (CBFC) द्वारा फिल्म को हरी झंडी देने में की जा रही कथित देरी और बार-बार आपत्तियां उठाए जाने के आरोपों के बाद लिया गया है। इस फ़ैसले ने रचनात्मक स्वतंत्रता और सेंसरशिप के दायरे पर एक नई बहस छेड़ दी है।

News : निर्माताओं के आरोप

फिल्म के निर्माता, सम्राट सिनेमैटिक्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, ने पिछले महीने बॉम्बे हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की थी। उनका आरोप है कि CBFC ने जानबूझकर फिल्म को प्रमाणित करने में देरी की है और अनावश्यक आपत्तियां उठाई हैं, जिससे फिल्म की रिलीज़ में बाधा आ रही है।

याचिकाकर्ताओं के अनुसार, यह फिल्म लेखक शांतनु गुप्ता की प्रशंसित पुस्तक “द मॉन्क हू बिकेम चीफ मिनिस्टर” पर आधारित है। निर्माताओं का दावा है कि फिल्म का निर्माण पूरी तरह से तथ्यात्मक आधार पर और कलात्मक स्वतंत्रता के सिद्धांतों का पालन करते हुए किया गया है।

निर्माताओं ने यह भी तर्क दिया है कि जिस किताब पर यह फिल्म आधारित है, उसे उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री कार्यालय से आधिकारिक समर्थन प्राप्त है, फिर भी CBFC द्वारा फिल्म को मंजूरी न देना समझ से परे है। याचिका में बताया गया है कि उन्होंने 5 जून को प्रमाणन के लिए आवेदन किया था।

नियमानुसार, CBFC को सात दिनों के भीतर प्रारंभिक जांच और 15 दिनों के भीतर फिल्म की स्क्रीनिंग करनी थी। हालांकि, लगभग एक महीने तक कोई कार्रवाई नहीं हुई। इस देरी के बाद, निर्माताओं को हाईकोर्ट का रुख करना पड़ा।

News : अदालत का हस्तक्षेप और CBFC की प्रतिक्रिया

हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद, CBFC ने 1 अगस्त को फिल्म देखकर यह तय करने का आदेश दिया कि इसे प्रमाणित किया जा सकता है या नहीं। इसके जवाब में, CBFC ने 6 अगस्त को फिल्म को प्रमाणित करने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि यह फिल्म सिनेमैटोग्राफ एक्ट और सार्वजनिक प्रदर्शन के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करती है।

इसके बाद, 7 अगस्त को अदालत ने निर्माताओं को CBFC की पुनरीक्षण समिति के समक्ष आवेदन देने का निर्देश दिया। साथ ही, बोर्ड को यह बताने का आदेश दिया गया कि किन संवादों या दृश्यों पर आपत्ति है। CBFC ने फिल्म पर कुल 29 आपत्तियां दर्ज कीं।

हालांकि, जब मामला पुनरीक्षण समिति के पास गया, तो समिति ने 8 आपत्तियों को खारिज कर दिया, लेकिन शेष आपत्तियों को बरकरार रखते हुए 17 अगस्त को फिल्म को फिर से प्रमाणित करने से इनकार कर दिया। इस लगातार अस्वीकृति के बाद, निर्माताओं ने अपनी याचिका को संशोधित कर पुनरीक्षण समिति के निर्णय को भी चुनौती दी।

News : मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: निर्माताओं की दलील

याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता रवि कदम ने अदालत में जोरदार बहस की। उन्होंने पुनरीक्षण समिति के फैसले को मनमाना और असंवैधानिक बताया। कदम ने एक चौंकाने वाला आरोप लगाते हुए कहा कि बोर्ड के कुछ सदस्यों ने अनौपचारिक रूप से निर्माताओं को यह सलाह दी कि वे फिल्म की रिलीज से पहले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से निजी एनओसी (नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट) प्राप्त करें।

रवि कदम ने इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का सीधा उल्लंघन बताया। उन्होंने तर्क दिया कि CBFC का कार्य केवल यह सुनिश्चित करना है कि फिल्म सिनेमैटोग्राफ एक्ट के प्रावधानों का पालन करे, न कि किसी व्यक्ति से निजी अनुमति प्राप्त करने की शर्त रखना, भले ही वह एक सार्वजनिक पद पर हो।

इसके जवाब में, CBFC की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अभय खांडेपारकर ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि पूरी प्रक्रिया में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किया गया है। उन्होंने दावा किया कि निर्माताओं को अपनी बात रखने का पूरा मौका दिया गया था और वे चाहें तो सिनेमैटोग्राफ एक्ट के तहत अपीलीय न्यायाधिकरण में अपील कर सकते हैं।

News : कोर्ट की नाराज़गी और ऐतिहासिक फैसला

पूरे मामले की सुनवाई के दौरान, न्यायमूर्ति रेवती मोहिते-डेरे और न्यायमूर्ति नीला के गोखले की खंडपीठ ने CBFC की कार्यप्रणाली पर गहरी नाराजगी व्यक्त की। पीठ ने कहा कि फिल्म प्रमाणन एक समयबद्ध प्रक्रिया है, लेकिन इस मामले में अनावश्यक देरी और बार-बार आपत्तियां उठाकर प्रक्रिया को जटिल बनाया गया है।

इस जटिलता को समाप्त करने और सच्चाई का पता लगाने के लिए, अदालत ने एक अभूतपूर्व फैसला लिया। बेंच ने निर्देश दिया कि निर्माता फिल्म की एक प्रति अदालत में जमा करें, जिसमें आपत्तिजनक दृश्यों को स्पष्ट रूप से चिह्नित किया जाए। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि वह खुद फिल्म को देखेगी और उसके बाद ही यह तय करेगी कि CBFC की आपत्तियां उचित और संवैधानिक हैं या नहीं।

बॉम्बे हाईकोर्ट का यह फैसला न केवल फिल्म सेंसरशिप के मुद्दे को एक नए आयाम में ले जाता है, बल्कि यह रचनात्मक स्वतंत्रता बनाम संवैधानिक दायित्व की बहस को भी गहरा कर रहा है। यह मामला एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाता है: क्या किसी सार्वजनिक पद पर आसीन व्यक्ति पर आधारित फिल्म बनाने के लिए उसकी व्यक्तिगत मंजूरी आवश्यक है, या यह केवल CBFC के दिशानिर्देशों के दायरे में ही तय होना चाहिए?

अदालत का यह कदम दिखाता है कि न्यायपालिका रचनात्मक कार्यों के प्रति संवेदनशील है और यह सुनिश्चित करना चाहती है कि CBFC अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करे। अब सबकी निगाहें इस पर टिकी हैं कि न्यायाधीश फिल्म देखकर क्या निष्कर्ष निकालते हैं और क्या यह फैसला भविष्य में सेंसरशिप के मामलों के लिए एक नया मानक स्थापित करेगा।